दीदी जी! ओ दीदी जी! ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ें लगा रहे थे वे घर के गेट पर।
उनकी तीखी आवाज़ें कानों में सीसा सा घोल रही थीं उसके, “इन्हें क्या फर्क पड़ता है, कोई जिए या मरे, इन्हें तो बस अपनी ही चिंता है” बड़बड़ाती हुई अपना ही जी जला रही थी महिमा।
वैसे तो वह कभी ऐसा नहीं सोचती थी, पर जब से उसकी माँ का देहांत हुआ था, वह चिड़चिड़ी सी रहने लगी थी।
यूँ तो माँ की हर सीख विदाई के साथ ही चुनरी की गांठ में बांधकर लाई थी वह। बचपन से ही माँ के दिए संस्कार समस्याओं पर अक्षुण्ण तीर से साबित होते।
माँ की कही बात रह-रह कर गूँजने लगी थी कानों में, ””बिटिया ! घर के दरवाज़े से कोई खाली हाथ न जाए , अपनी सामर्थ्य के अनुसार कुछ न कुछ अवश्य देना चाहिए।””
दीदी जी! ओ दीदी जी! आवाज़ें लगातार धावा बोल रही थीं।
“अरे भाई , दे दो इनका दीपावली का ईनाम, वही लेने आए होंगे, हम तो दीपावली नहीं मनाएँगे, पर ए तो हर होली, दिवाली की बाट जोहते हैं न! इन्हें क्यों निराश करना” पति ने आवाज़ पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा।
“दी…दी… जी !! अबकी बार स्वर और तेज़ था ।
उनका स्वर व उसका गुस्सा आपस में मानो प्रतिस्पर्धा पर उतर आए थे।
“आ रही हूँ” अलमारी में से पैसे निकाल कर भुनभुनाती हुई चल दी वो गेट खोलने ।
” दीदी जी, हम तो आपका दुख बाँटने आए हैं। दिल तो हमारे पास भी है, माँ से जुदा होने का दुख हमसे बेहतर कौन जानता है । बस आपको देख लिया , जी को तसल्ली हो गई, भगवान आपका भला करे।” आशीर्वादों की बौछार करते व ताली बजाते हुए, चल दिए वो, अगले घर की ओर।
महिमा की मुट्ठी में नोट व जले कटे शब्द ज़बान में ही उलझ कर रह गए ।
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